तीन तलाक़: मुसलमान औरतों को राहत या गले की फांस?

Three Divorced, Muslim women are relieved of relief or throat Samastipur Now
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लोकसभा के बाद राज्यसभा में भी तीन तलाक़ विधेयक पारित हो चुका है और जल्दी ही ये क़ानून भी बन जाएगा, इंतज़ार बस राष्ट्रपति की मुहर का है.

मुस्लिम महिला (विवाह अधिकार संरक्षण) विधेयक 2019 के प्रावधानों के मुताबिक़ महिला को एक बार में तीन तलाक़ देना दंडनीय अपराध है.

इसके लिए तीन साल के जेल की सज़ा के साथ ज़ुर्माना भी हो सकता है.

इस क़ानून से क्या वाक़ई मुसलमान महिलाओं को राहत मिलेगी या पति का जेल जाना उनके लिए ही मुश्किलों का सबब बनेगा?

यही जानने के लिए बीबीसी ने राष्ट्रीय महिला आयोग की अध्यक्ष रेखा शर्मा और वरिष्ठ पत्रकार फ़राह नक़वी से बात की.

पढ़िए, उनका नज़रिया.

तलाक़ देने से पहले चार बार सोचेंगे मर्द: रेखा शर्मा (अध्यक्ष, राष्ट्रीय महिला आयोग)

मैं नए तीन तलाक़ क़ानून का स्वागत करती हूं. मुस्लिम महिलाएं बहुत वक़्त से इसका इंतज़ार कर रही थीं. इस तीन तलाक़ की वजह से मुसलमान औरतों को न जाने क्या-क्या बर्दाश्त करना पड़ता था, मिनटों में घर से बाहर निकलना पड़ता था.

ये एक ऐतिहासिक क़दम है, जो मुस्लिम महिलाओं के साथ होने वाली नाइंसाफ़ी को रोकेगा. अब मुसलमान भाई अपनी बीवियों को तलाक़ देने से पहले दो बार-चार बार रुककर सोचेंगे कि ऐसा करने से उन्हें सज़ा हो सकती है. महिलाओं के सशक्तीकरण की दिशा में भी ये एक बड़ा क़दम है.

सुप्रीम कोर्ट ने एक बार में तीन तलाक़ देने को असंवैधानिक भले ही ठहरा दिया था लेकिन इसका पालन नहीं होता था. शरीयत में भी तीन तलाक़ का ज़िक्र नहीं है, फिर भी मुस्लिम समुदाय में इसका चलन जारी था.

मुझे नहीं लगता कि सरकार का मक़सद निर्दोष पतियों को सज़ा दिलवाना है बल्कि मेरा मानना है कि सज़ा के डर से पुरुष तीन तलाक़ देने के बारे में सोचेंगे भी नहीं.

यहां ध्यान देने वाली बात ये है कि तीन महीने के भीतर दिए जाने वाले तलाक़ पर पाबंदी नहीं लगाई गई है बल्कि एक बार में तीन तलाक़ देने को ग़ैरक़ानूनी घोषित किया गया है.

सुप्रीम कोर्ट के निर्देश के बावजूद मुस्लिम पुरुष धड़ल्ले से तीन तलाक़ दे रहे थे. हमारे पास ऐसे बहुत से मामले आए. अभी पिछले महीने ही मेरे पास एक ऐसा केस आया था और उससे पहले भी ऐसे मामले आते रहे हैं.

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सच्चाई तो ये है कि बहुत सी मुसलमान महिलाओं ने इसके लिए बाक़ायदा ‘हस्ताक्षर अभियान’ चलाया था कि क़ानून पारित करके ट्रिपल तलाक़ को ग़ैरक़ानूनी क़रार दिया जाए. अभी पिछले महीने ही बहुत सी महिलाओं ने हमें इस सिलसिले में अर्ज़ी भेजी थी.

मैं ये बिल्कुल नहीं मानती कि तीन तलाक़ क़ानून किसी धर्म विशेष को निशाना बनाता है. मेरा मानना है कि क़ानून सभी औरतों के लिए समान होना चाहिए, चाहे वो किसी भी धर्म या समुदाय से ताल्लुक़ रखने वाली हों.

अगर इन मामलों में अदालत फ़ैसले दे तो बेहतर होगा. मामला अदालत में जाने पर महिलाओं को भी अपना पक्ष रखने का मौक़ा मिलता है.

पहले तीन तलाक़ बोलकर उन्हें रातों-रात घर से बेदख़ल कर दिया. ना उन्हें किसी तरह की आर्थिक मदद मिलती थी और न ही क़ानूनी. इसलिए मुझे लगता है कि तीन तलाक़ क़ानून महिलाओं के हक़ में है, न कि उनके ख़िलाफ़.

इस क़ानून का कोई मतलब ही नहीं: फ़राह नक़वी (वरिष्ठ पत्रकार)

मुझे नहीं लगता कि इस क़ानून का कोई मतलब भी है. सुप्रीम कोर्ट ने साल 2017 में ही एक बार में तीन तलाक़ दिए जाने को असंवैधानिक क़रार दिया था. जिस लफ़्ज़ का क़ानून में कोई मतलब ही नहीं है, उसे अपराध बनाए जाने का भी कोई मक़सद समझ नहीं आता.

मुझे लगता है कि सरकार का सीधा निशाना मुसलमान पुरुष हैं. तीन तलाक़ क़ानून से महिलाओं की कोई भलाई नहीं होने वाली है. शादी और तलाक़ सिविल मामले हैं. भारत में पहली बार में इन मामलों में बाक़ायदा सज़ा का ऐलान हुआ है. ऐसा क्यों?

मौजूदा वक़्त में जब मुसलमान समुदाय पहले ही डरे हुए और दूसरे दर्जे के नागरिक जैसा महसूस कर रहा है, जब देश में आए दिन मॉब-लिंचिंग की घटनाएं पढ़ने-सुनने को मिल रही हैं तो ऐसे में सरकार को अचानक मुसलमान औरतों की चिंता क्यों सताने लगी? क्या ये दोहरा रवैया नहीं है? मुझे सरकार की इस कोशिश में कोई ईमानदारी नहीं दिखती.

किसी भी मर्द को ये अधिकार नहीं है कि वो अपनी बीवी को घर से बेदखल करे लेकिन ऐसी सूरत में हमारे पास घरेलू हिंसा क़ानून पहले से है, उसका इस्तेमाल किया जाना चाहिए.

अगर तीन तलाक़ के जुर्म में पति को जेल भेज दिया जाए तो पत्नी की देखरेख कौन करेगा? उसके परिवार और बच्चों की देखभाल कौन करेगा? ये कैसे साबित हुआ कि तीन तलाक़ ही मुसलमान औरतों का सबसे बड़ा मुद्दा है?

मुसलमान औरतों के दूसरे बड़े मुद्दे भी हैं. मुझे नहीं लगता कि ये क़ानून उन्हें किसी भी तरह से राहत देगा.

रही बात विपक्ष की तो मेरा मानना है कि तीन तलाक़ क़ानून का पारित होना विपक्षी दलों की बड़ी नाकामी है, जिन नेताओं ने तीन तलाक़ बिल के ख़िलाफ़ सदन में अपनी राय रखी, मुझे लगता है कि अगर वो अपनी ऊर्जा भाषण तैयार करने के बजाय विपक्षी दलों को एकजुट करने में लगाते तो शायद नतीजा कुछ और होता.

विपक्षी दलों ने वॉकआउट करके महज एक सांकेतिक विरोध दर्ज कराया है जो पूरी तरह अप्रभावी रहा.

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